उपन्यास >> डूबते मस्तूल डूबते मस्तूलश्रीनरेश मेहता
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अपने इस प्रथम उपन्यास 'डूबते-मस्तूल, में नरेशजी ने नारी के एक प्रखर स्वरूप को भावनाओं और घटनाओं, के माध्यम से जब प्रस्तुत किया था सन् 1954 में, तभी से इसकी नायिका रंजना हिन्दी-उपन्यास के पाठकों की स्मृति बन गयी
परिस्थितियों के संधात से टूटती-बनती एक अप्रतिम सुन्दर नारी की विवश-गाथा का प्रतीक नाम है-डूबते- मस्तूल!
वस्तुत: नारी की यह विवशता किसी भी युग में कम नहीं हुई है। उसका विन्यास परिवेश के बदलने के साथ कुछ परिवर्तित भले ही लगे पर पुरुष कभी उसे वही स्थान और मान्यता नहीं देता जो वह किसी अन्य पुरुष को देता है। स्वयं नारी को अपने इस भोग्या स्वरूप से कितना विद्रोह है पर प्रकृति के विधान का उल्लघन कर पाना एक सनातन समस्या है।
अपने इस प्रथम उपन्यास 'डूबते-मस्तूल, में नरेशजी ने नारी के एक प्रखर स्वरूप को भावनाओं और घटनाओं, के माध्यम से जब प्रस्तुत किया था सन् 1954 में, तभी से इसकी नायिका रंजना हिन्दी-उपन्यास के पाठकों की स्मृति बन गयी।
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